Tuesday, November 19, 2013

फिर से लॉन्च हुई समीक्षा भारती समाचार सेवा

फरीदाबाद : साल 1977 में लॉन्च की गई  को समीक्षा भारती समाचार सेवा एक बार फिर से लॉन्च किया गया है। ध्यान रहे, आपातकाल के दौरान जिन मीडिया संस्थानों को बुरे दौर से गुजरना पड़ा था... उनमें से एक यह भी था। इस बार इसे मीडियाभारती वेब सॉल्यूशन के सहयोग से दोबारा शुरू किया गया है।

हाल ही में एनडीटीवी से इस्तीफा देने के बाद धर्मेंद्र कुमार ने अपनी कंपनी मीडियाभारती वेब सॉल्युशन के अंतर्गत इसका अधिग्रहण किया है। पूर्व में, जाने-माने पत्रकार ब्रज खंडेलवाल इसके सर्वेसर्वा थे। मीडियाभारती ब्रांड के तहत पूर्व में यह गतिविधि मीडियाभारती सिंडीकेशन सर्विस के तहत चलाई जा रही थी।

नए प्रबंधन के तहत अब इस ब्रांड के जरिए वेबसाइटों, पत्रिकाओं, अखबारों, टीवी, शोध पत्रों और न्यूज लैटर्स आदि को नियमित प्रकाशन सामग्री उपलब्ध कराई जाएगी।

Tuesday, March 19, 2013

अद्भुत है मथुरा के श्री दाऊजी की होली परम्परा...

धर्मेंद्र कुमार

होली का त्योहार निकट है और मथुरा-वृंदावन के इलाकों में होली की सरगर्मियां पूरे उफान पर हैं। बाजारों और घरों में होली के आयोजन के लिए तैयारियां चरम सीमा पर हैं। रोजाना के दुख-दर्दों को भुलाकर लोग महीनेभर तक त्योहारी मस्ती में सराबोर रहने की तैयारी में जुटे हैं।

ऋतुराज बसंत के आगमन के साथ जहां पूरी प्रकृति आह्लादित हो उठती है, वहीं जनमानस में भी एक विशिष्ट रस का संचार होने लगता है। पूरे बृज मण्डल के देवालयों में तो बसंत पंचमी से ही उत्सवों का श्री गणेश हो जाता है।

प्रायः सभी प्रसिद्ध देवालयों में रागरंग होते हैं, जो सम्पूर्ण होली पर्व तक चलते रहते हैं। रंगभरी पिचकारी में परम्परागत टेसू के रंग से बना सुगंधित रंग एवं सात रंगों के गुलाल की घुमड़न वातावरण में दैवीय कल्पना को साकार कर देते हैं। जहां तक देवालयों के उत्सवों की परम्परा का विषय है, वहां श्री दाऊजी के देवालय की परम्परा विशिष्ट एवं अनूठी है। मदन महोत्सव के मुख्य देवता भी निश्चित रूप से बलराम, कृष्ण, प्रकृति रूपा राधारानी, रेवती तथा उनकी सखियां हैं।

बल्देव स्थित श्री हलधर समग्र दर्शन शोध संस्थान के निदेशक डॉ. घनश्याम पाण्डेय बताते हैं, 'श्री दाऊजी मंदिर में यह उत्सव माघ शुक्ला बसंत पंचमी से शुरू होकर चैत्र कृष्णा पंचमी यानी डोलोत्सव तक चलता है। मंदिर की परम्परागत लोक गायकी की स्वर लहरी गूंजने लगती है और ‘खेलत बसंत बलभद्र देव। लीला अनंत कोई लहै न भेद’ जैसे पदों का गायन झांझ, ढप, मृदंग, हारमोनियम जैसे साजों के साथ प्रारम्भ हो जाता है। जैसे ही फागुन मास आता है, अनेकानेक समयानुरूप होली गायन प्रारम्भ होता है। सभी साजों की संगत के साथ समाज के स्वरूप का अनुमान तो इससे ही लगता है कि समूह समाज गायन की आवाज बिना किसी लाउडस्पीकर आदि की सहायता के मीलों दूर तक सुनी जा सकती है।'

इस पूरी परम्परा में श्रृंगार आरती एवं रात्रि को संध्या आरती का विशेष महत्व होता है। गुलाल उड़ने से सराबोर हुए श्रृद्धालु भक्त अपने आपको धन्य मानते हैं। होलाष्टकों से डोल पंचमी तक रंग की प्रक्रिया होती है, इसे शब्दों से वर्णन नहीं किया जा सकता, केवल देखकर ही इसे महसूस किया जा सकता है।

स्थानीय पत्रकार सुनील शर्मा ने बताया, 'होली की पूर्णिमा से विशेष उत्सव प्रारम्भ हो जाता है। देवालय में रंग गुलाल अबीर चोबा चन्दन की बौछारें दर्शक के मन को मोह लेती है। शाम के समय श्री ठाकुर जी के प्रतीक आयुध हल-मूसल के साथ होली पूजन होता है जिसमें हजारों की संख्या में महिलाएं बाल, वृद्ध लोग सम्मिलित होते हैं। यह जुलूस अपनी अपने तरह का सम्पूर्ण बृज मण्डल में अकेला ही है। परिक्रमा मार्ग से लेकर होली पूजन स्थल करीब दो किमी है, सारे मार्ग में गुलाल भुड़़भुड़ की तहें जम जाती हैं। श्री नारायणाश्रम से प्रारम्भ यह यात्रा दो घण्टे में पूरी होती हैं रात्रि में ‘भागिन पायो री सजनी यह होरी सौत्योहार’ की शब्दावली अंतःकरण को छू जाती है।'

प्रतिपदा को मंदिर में वही रंग-गुलाल और दोपहर को सैकड़ों 'भाभी-देवर' मंदिर के प्रांगण में परम्परागत महारास का आयोजन करते हैं। सेवायतों की कुल बधुएं अपने देवरों के साथ विशिष्ट परिधानों से नृत्य करती हैं। शहनाई और नगाडे़ की स्वर-लहरी दर्शकों के लिए दिव्यानुभूति का कारण बनती है और दर्शक उस रंग में डूबकर स्वयं को धन्य अनुभव करता है।

द्वितीया के दिन (इस साल 28 मार्च को) हुरंगा का आयोजन होता है। प्रातः 11 बजे से ही मंदिर प्रांगण में रंग की भरमार हो जाती है। बड़ी-बड़ी हौजों में टेसू के परम्परागत रंग की छटा बिखर जाती है। मंदिर प्रांगण में तथा चारों ओर छतों पर दर्शकों की भीड़ में तिल रखने की जगह भी नहीं बचती व स्थानीय दर्शक और विदेशी पर्यटक इस उत्सव में बरबस खिंचे चले आते है। दोपहर 12 बजे राजभोग का आयोजन होता है तथा दोनों भाइयों के प्रतीक दो झण्डे श्री ठाकुर जी की आज्ञा से मंदिर के मध्य में उपस्थित होते हैं। इधर, सेवायत गोस्वामी वर्ग की बधुएं एवं ग्वाल-बाल स्वरूप पंडागण मंदिर में एकत्रित होते हैं। पहले नृत्य होता है, उसके बाद ठाकुर जी की आज्ञानुसार खेल हुरंगा प्रारम्भ हो जाता है। यहां अत्यन्त मर्यादित तरीके से ही खेल होता है।

हुरियारे पुरुष अपनी भाभियों पर कुण्ड और हौजों में भरे रंग डालते जाते हैं और बदले में भाभियां उनके शरीर के वस्त्रों को पकड़कर खींच लेती हैं। उनके ऊपर डंडों से प्रहार करती हैं। छतों से उड़ते हुए विभिन्न रंगों के शुद्ध गुलाल नीचे नगाडे़ शहनाई की धुन परम दिव्य भाव उपस्थित कर देते हैं और 'आज विरज में होरी रे रसिया...' तथा ‘छोरा तोते होरी जल खेलूँ, मेरी पहुँची में घुँघरू जड़ाय...’ की ध्वनि श्रोताओं को मुग्ध कर देती हैं।

आकाश में उड़ते गुलालों के रंगों का मिश्रण मनमोहक होता है। इस वर्ण सम्मिश्रण हेतु अनेक कलाविद यहां वर्ण संयोजन का ही अनुभव एवं आनन्द लेने आते हैं। यह हुरंगा का खेल मध्यान्तर तीन बजे तक चलता रहता है। खेल के मध्य विराजित झुण्डों का श्री रेवती जी एवं श्री राधा जी के इशारे पर हुरियारी लूट लेती हैं और इस प्रकार उत्सव पूर्णता की ओर अग्रसर होता है तथा सभी खिलाडी परिक्रमा हेतु अग्रसर होते हैं तथा पूरी परिक्रमा में गूंजता है ‘हारी रे गोरी घर चलीं औरतें, तो मरूँगी जहर विष खाय..’ आदि-आदि। इस उत्सव में विशेष कर भांग के अनेकों प्रकार के मिश्रण ठाकुर जी के भोग में रखे जाते हैं।

ध्यान रहे, इस उत्सव में 20 मन गुलाल उड़ता है, जो कि एक रिकार्ड है। पंचमी के दिन होली की चरम परिणिति होती है। मंदिर में मध्यान्ह में समाज रंग गुलाल होता है तथा उस समाज का बहुत जी भावोत्पादक पर जब गाया जाता है तो बरबस श्रोता भाव विभोर होकर अश्रुपात करते देखे जा सकते हैं। ‘जो जीवै सो खेलै फाग हरि संग झूमरि खेलियै...’ रंगों को एक वर्ष के लिए विदाई दी जाती है।

Friday, March 01, 2013

साल दर साल बजट कितना जरूरी...

धर्मेंद्र कुमार
धर्मेंद्र कुमार

हर साल की तरह एक और बजट आ गया। एक मीडियाकर्मी होने के नाते पिछले कई सालों से लगातार मैं इस 'घटना' का एक दर्शक बनता आया हूं। हां... इस वार्षिक आयोजन से पहले अर्थव्यवस्था में नौ फीसदी की हिस्सेदारी रखने वाले रेल बजट का अलग से प्रस्तुतिकरण भी संसद के पटल पर 'रिहर्सल' के रूप में किया जाता है। अगर रेल बजट को आम बजट का 'ट्रेलर' कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।

पिछले कुछ सालों से तो यह भी पता करना मुश्किल होता जा रहा है कि यह एक आर्थिक आयोजन है या राजनीतिक...।

देश में विकास की प्रक्रिया को जारी रखने के लिए पंचवर्षीय योजना का खाका पेश करने का विधान बनाया गया है। आम बजट में सरकार के खर्चे और आमदनी का हिसाब-किताब रखना होता है लेकिन नेताओं ने इसे टैक्स में छूट या बढ़ोतरी करने का सालाना 'उत्सव' बना दिया है। 'नया सूट' पहनकर संसद में रेल और वित्त मंत्री इसके अगुवा बनते हैं।

पिछले कई अनुभवों के आधार पर कहा जा सकता है कि बजट में किए गए प्रावधानों से ज्यादा फायदा बड़े उद्योगपतियों या कहें कि अमीरों को ही होता है। निचले और मध्यम वर्ग को कमोबेश अपना खर्चा बढ़ता हुआ ही नजर आता है। इस बार हालांकि एक करोड़ से ज्यादा आय वाले लोगों पर 10 फीसदी का अतिरिक्त प्रभार लगाया गया है लेकिन बीते कई सालों में मुझे याद नहीं आता कि ऐसा कोई प्रावधान आया हो। इसके लिए चिदंबरम बधाई के पात्र हैं। हालांकि, इसके पीछे मौजूदा सरकार का आखिरी बजट और देश के कई हिस्सों से उठी ऐसी मांग ज्यादा रही। अन्यथा टाटा, बिड़ला और अंबानी भी 30 फीसदी की दर पर ही कर चुका रहे थे।

हर बार तत्कालीन सरकार अपने दल और क्षेत्र से जुड़े लोगों का ही फायदा कराती नजर आई है। बल्कि एक तरह से अब इसे सार्वजनिक रूप से स्वीकार भी कर लिया गया है। नेता यह तर्क भी देते दिखने लगे हैं कि अगर रेल मंत्री और वित्त मंत्री अपने क्षेत्र में विशेष योजनाओं को ले जाते हैं तो क्या बुराई है...?

नए तरह के कर प्रावधानों के बाद 'निकल' जाने के रास्ते भी साथ ही साथ सुझा दिए जाते हैं। उच्च वर्ग के पास पूरे संसाधन होते हैं इन प्रावधानों से फायदा उठाने के... अगर कोई पिसता है तो वह है निम्न और मध्यम वर्ग। इस आर्थिक-राजनीतिक गठजोड़ का तोड़ फिलहाल आम जन के पास नजर नहीं आता।

अब सवाल यह है कि क्या वाकई इस तरह के सालानों बजटों को पेश करने की कोई जरूरत है... क्या पंचवर्षीय योजना के खाके में ही इसे समाहित नहीं कर दिया जाना चाहिए और बजट को एक बैलेंस शीट के रूप में ही पेश नहीं कर दिया जाना चाहिए... जिससे नेताओं को सस्ती राजनीति में पड़ने का एक और मौका न मिले। या... अगर बजट पेश करना इतना ही जरूरी है तो क्यों न हर विभाग या सेक्टर का अलग-अलग बजट पेश किया जाए और हर नेता को 'नया सूट' पहनने का मौका दिया जाए...।

Sunday, February 10, 2013

कसाब, अफजल और कांग्रेस का 'चुनावी मोड'

 
धर्मेंद्र कुमार

21 नवंबर की सुबह अजमल कसाब को 'यकायक' फांसी पर लटका देने के बाद सबकी जुबान पर यह सवाल उठ खड़ा हुआ था कि अब अफजल गुरु का यह अंजाम कब होगा...?

तब, राजनीतिक हल्कों में यह बात उठने लगी थी कि साल 2002 में ही अदालती फैसला आ जाने के बावजूद उसकी फांसी में देरी के 'राजनीतिक कारण' हैं। हालांकि यह अच्छी बात है कि देश की सरकार आतंकियों के प्रति कड़ा रुख अपनाए और दुनिया में एक अच्छा संकेत दे। मुस्लिमविरोधी छवि के लिए जाने जाने वाले संगठन इस मामले को उछालते भी रहे। मुस्लिम समुदाय की नाराजगी मोल नहीं लेने के भी आरोप लगे। लेकिन सरकार द्वारा तय किए गए समय पर अब भी अब सवाल खड़े किए जा रहे हैं।

केवल दो-ढाई महीने में ही अफजल गुरु का 'नंबर' आ गया। बेशक राष्ट्रपति को फैसला लेना होता है लेकिन इससे मिलने वाले सियासी संकेतों से एक तबके की नजर हट नहीं पा रही है। सरकार की अचानक इस 'तेजी' के पीछे क्या कोई कारण हो सकता है... इसपर भी कई बातें सूत्रों के मुंह से सुनने को लगातार मिल रही हैं।

साल 2014 के चुनावों की तैयारियों में सभी दल जुट चुके हैं। बीजेपी अपना हिंदुत्व कार्ड खेलने की तैयारी में जुट गई है। राजनाथ सिंह का अध्यक्ष पद संभालने के बाद पुन: राम मंदिर की बात शुरू कर देना और नरेंद्र मोदी टाइप 'हिंदुत्व' की वकालत में आगे आ जाने से कांग्रेस और उसके सहयोगियों के कान खड़े होना लाजिमी है।

जहां बीजेपी कंधार मामले को भूलकर आतंकियों के खिलाफ अपने को मुखर दिखाना चाहती है वहीं कांग्रेस भी अपनेआपको यह जताना चाहती प्रतीत हो रही है कि वह आतंकवाद के खिलाफ 'सॉफ्ट' नहीं है।

समय-समय पर कांग्रेस अपनी यह छटपटाहट 'भगवा आतंकवाद' का नाम लेकर जाहिर करती भी रहती है।

हालांकि तब वह 'तेजी' दिखाने में रुचि नहीं दर्शाती। लेकिन गाहे-बगाहे उसके नेता मुंह जुबानी त्वरित कार्रवाई की बात करते रहते हैं।   

संदेह जताया जा रहा है कि अदालत से साल 2002 में ही सजा पर मुहर लग जाने के बाद इसपर अमल करने में करीब 10 साल का समय लगने के पीछे राजनीति एक कारक के रूप में जरूर रही होगी।

विपक्ष सरकार पर मुस्लिम तुष्टीकरण का आरोप लगाता रहा है सरकार फांसी के लिए सही समय सुनिश्चित करने में जुटी थी। कहा जा सकता है कि इसके पीछ सतर्कता भी हो सकती है। लेकिन यकायक तेजी खासकर चुनावों से ठीक एक साल पहले ऐसी कार्रवाई सवाल खड़े कर रही है।

हालांकि ये आशंकाएं निर्मूल ही हैं क्योंकि भारतीय मुस्लिम समाज का एक बड़ा तबका आतंकवाद के बिल्कुल खिलाफ खड़ा है। केवल कश्मीर में ही एक छोटा-सा गुट भारत विरोधी है और वह भी इसलिए क्योंकि उन्हें पाकिस्तान से इसके लिए मदद मिलती है। लेकिन सत्ता पर सवार लोगों की समझ में यह बात कितनी आती है... इसमें संदेह है।
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