Friday, April 30, 2010

इंतेहा Self-Appraisal की!

दफ्तरों में Self-Appraisal का दौर हालांकि खत्म हो गया है लेकिन सलाह-मशविरा देने का काम जारी है। मार्च-अप्रैल-मई के महीनों के दौरान ऑफिस में होने वाली गपशप का विषय ज्यादातर यही होता है। नई दिल्ली से एनडीटीवीखबर.कॉम के संपादक विवेक रस्तोगी ने ये प्रसंग भेजा है। मुझे नहीं लगता कि अपना इस तरह से मूल्यांकन करना आसान है... लेकिन एक बार प्रयास कर लेने में क्या हर्ज है। अगर असफल भी हो जाएं तो कम से कम इसे पढ़ लेने में क्या हर्ज है... :)
---धर्मेंद्र कुमार
A little boy went to a telephone booth, which was at the cash counter of a store and dialed a number...

The store-owner observed and listened to the conversation...

Boy: "Lady, Can you give me the job of cutting your lawn...?"

Woman (at the other end of the phone line): "I already have someone to cut my lawn..."

Boy: "Lady, I will cut your lawn for half the price than the person who cuts your lawn now..."

Woman: "I'm very satisfied with the person who is presently cutting my lawn..."

Boy (with more perseverance): "Lady, I'll even sweep the floor and the stairs of your house for free..."

Woman: "No, thank you..."

With a smile on his face, the little boy replaced the receiver...

The store-owner, who was listening to all this, walked over to the boy and said, "Son... I like your attitude; and I like that positive spirit of yours and would like to offer you a job..."

Boy: "No thanks, sir..."

Store Owner: "But you were really pleading for one..."

Boy: "No Sir, I was just checking my performance at the job I already have... I am the one who is working for that lady I was talking to..."

This is called "Self Appraisal..."

Friday, April 09, 2010

जाने कब उबर पाएंगे हम...

देश की आजादी को 60 से ज्यादा साल हो गए हैं। इस दौरान देश ने उल्लेखनीय प्रगति की है। लगभग सभी क्षेत्रों में चहुंमुखी विकास सा दिखता है। शहरों में खूब आपाधापी बढ़ी है। सड़कों पर लंबी और छोटी कारें खूब दिखती हैं। इस सब को देखकर कहीं अहसास होता है कि खूब उन्नति कर रही हैं हमारी पीढ़ियां... लेकिन यह सिर्फ एक उजला पक्ष है... जरा उधर देखें... जहां ये रोशनी नहीं पहुंची है। गांवों में न बिजली पहुंच पा रही है न पीने के पानी की कोई बढ़िया व्यवस्था है। शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी आधारभूत जरूरतें तक पूरी नहीं हो पा रही हैं जबकि हमारे ज्यादातर प्रतिनिधि इन्हीं जगहों से चुनकर आते हैं। देश की तरक्की में सबसे बड़ा योगदान देने वाले कृषि क्षेत्र की दशा और दिशा चिंताजनक है। देश के कई हिस्सों में किसान अपना कर्जा न चुका पाने के कारण आत्महत्या कर रहे हैं।

जाने कब उबर पाएंगे हम लोग इस सबसे... ऐसे माहौल से व्यथित अम्बरीष श्रीवास्तव की यह कविता है। आगरा से बृज खंडेलवाल ने भेजी है... पढ़ लीजिए...

--- धर्मेंद्र कुमार
बदन उघारा दीखता, मिला पीठ में पेट।
भोले-भाले कृषक को, ये ही मिलती भेंट।।


खाद-बीज महंगा हुआ, महंगा हुआ लगान।
तेल-सिंचाई सब बढ़ा, संकट में हैं प्राण।।

महंगाई बढ़ती गई, सब कुछ पहुंचा दूर।
सस्ते में अपनी उपज, बेचे वो मजबूर।।


रातों को भी जागता, कृषि का चौकीदार।
भूखा उसका पेट तक, साधन से लाचार।।


हमें अन्न वो दे रहा, खुद भूखा ही सोय।
लाइन में भी वो लगे, खाद वास्ते रोय।।


अदालतों के जाल में, फंस कर होता तंग।
खेत-मेंड़ महसूस हो, जैसे सरहद जंग।।


ब्याहन को पुत्री भई, कर्जा लीया लाद।
बंजर सी खेती पड़ीं, कैसे आए खाद।।


धमकी साहूकार दे, डपटे चौकीदार।
आहत लगे किसान अब, जीवन है बेकार।।


सुख-सम्पति कुछ है नहीं, ना कोई व्यापार।
कर्ज चुकाने के लिए, कर्जे की दरकार।।


गिरवीं उसका खेत है, गिरवीं सब घर-बार।
नियति उसकी मौत सी, करे कौन उद्धार।।


मजदूरी मिलती नहीं, गया आँख का नूर।
आत्महत्या वो करे, हो करके मजबूर।।


उसको ठगते हैं सभी, कृषि के ठेकेदार।
मौज मनाते बिचौलिए, शामिल सब मक्कार।।


कृषक के श्रम से जिएं, शासक रंक फ़कीर।
परन्तु हाय उसी की, फूटी है तकदीर।।


हम है कितने स्वार्थी, काटें सबके कान।
मंतव्य पूरा हो रहा, क्यों दें उस पर ध्यान।।


कृषि प्रधान स्वदेश में, बढ़ता भ्रष्ठाचार।
यदि चाहो कल्याण अब, हो आचार विचार।।
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