Monday, June 22, 2009

बदहाली की ओर 'आगरा घराना'

धर्मेंद्र कुमार
शास्त्रीय संगीत के कई घरानों में से एक आगरा घराना अपनी बदहाली पर आंसू बहा रहा है। इस विरासत को संभालकर रखने वाले अब कुछ लोग ही बचे हैं। 400 साल पुराने इस घराने के आखिरी बड़े प्रतिनिधि उस्ताद अकील अहमद साहब इसी शहर में बेबसी की जिंदगी जी रहे हैं। हालांकि, इस परंपरा को बचाए रखने के लिए वह अभी भी कुछ उभरते गायकों को तालीम देने में जुटे हुए हैं। लेकिन इसके बाद क्या? इसका जवाब शायद किसी के पास नहीं है।

ललित कला संस्थान में शिक्षक ज्योति खंडेलवाल का कहना है कि लुप्त हो रही इन परंपराओं को संभालने की महती जरूरत है। संगीत की दूसरी धाराओं में महारत हासिल करने के लिए शास्त्रीय संगीत की जानकारी बहुत अहम है।

इप्टा के राष्ट्रीय सचिव जितेंद्र रघुवंशी का मानना है कि आगरा घराने की जमीन न केवल आगरा में बल्कि पूरे देश में है। इस मुगलकालीन संगीत परंपरा को बचाने में कई शास्त्रीय गायक जुटे हुए भी हैं।

आगरा के ही वाशिंदे, उभरते गजल गायक लईक खान कहते हैं कि आगरा घराना अभी खत्म नहीं हुआ है। सारी दुनिया में इसके प्रशंसक फैले हुए हैं। लेकिन, आगरा में इस स्वर्णमयी परंपरा को बचाए रखने का कोई प्रयास नहीं हो रहा है।

"यह केवल आगरा घराना ही है जो अभी भी ध्रुपद-धामर, अलाप, खयाल, ठुमरी, टप्पा, तराना, होरी, दादरा, गजल, रसिया आदि का गायन जारी रखे हुए है", कहना है सांस्कृतिक आलोचक महेश धाकड़ का।

आगरा के दूसरे संगीतकारों ने भी इस जैसी संगीत परंपराओं की खोती चमक पर रोष जताया है। केवल कुछ संस्थान ही इन सांस्कृतिक विरासतों को बचाए रखने का प्रयास कर रहे हैं। जबकि ललित कला संस्थान में जारी कुछ पाठ्यक्रमों को विद्यार्थियों में रुचि न होने के कारण बंद कर दिया गया।

बृजमंडल हेरिटेज कंजर्वेशन सोसायटी के अध्यक्ष सुरेंद्र शर्मा ने कहा कि "अब समय आ गया है कि आगरा घराना की विरासत को बचाए रखने के लिए ठोस कदम उटाए जाएं"।

Tuesday, June 09, 2009

आन पड़ी है ऑनलाइन वोटिंग की जरूरत

धर्मेंद्र कुमार
15वीं लोकसभा का गठन हो चुका है। सरकार बन चुकी है। नई सरकार अपने काम में जुटकर अच्छा प्रदर्शन करने का प्रयास कर रही है, ताकि अगले चुनाव में दोबारा विजयश्री हासिल की जा सके। इधर, विपक्षी इस काम में जुट गए हैं कि अगली बार कैसे उनकी ही सरकार बने। एक काम 'हम भारत के लोगों' के लिए भी है...।

इस बार हुए चुनावों के परिणामों को न केवल देशभर में तारीफें मिलीं, बल्कि दुनियाभर के देशों ने भी भारतीय जनता के मानसिक संतुलन की प्रशंसा की। ये सब तब हुआ, जब कुल 71 करोड़ 40 लाख मतदाताओं में से मात्र 60 फीसदी यानी करीब 43 करोड़ लोगों ने ही वोट दिया। 40 फीसदी लोग वोट डालने ही नहीं गए। अपनी-अपनी वजहों से...। वोट प्रतिशत बढ़े तो हम तारीफों के 'शौकीन' लोगों को और भी तारीफें मिल सकती हैं।

वैसे तो वोट प्रतिशत बढ़ाने के लिए देशभर में कई समाजसेवी संगठन जुटे हुए हैं। खुद नेताओं की बिरादरी द्वारा किए गए प्रयासों को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता। वोटरों को उनके घरों से निकाल कर मतदान बूथ तक लाने में कितनी मेहनत करनी पड़ती है, ये जरा उनसे पूछिए...।

वोट डालने के लिए प्रेरित करने को सरकारी स्तर पर भी खूब प्रयास किए जाते हैं। इसके लिए मीडिया का भी उपयोग किया जाता है। लेकिन अपेक्षित परिणामों की अभी भी सिर्फ प्रतीक्षा ही है।

दरअसल इसके लिए कुछ ठोस प्रयास करने की आवश्यकता है। वक्त बदल रहा है और पीढ़ियां भी। युवाओं में वोट के लिए उत्साह है, लेकिन उनकी व्यस्तताएं भी हैं। वोट न डालने जाने के उनके तर्क भी कभी-कभी अकाट्य होते हैं।

चुनाव आयोग को इस दिशा में सोचना चाहिए कि युवाओं में वोट डालने के लिए कैसे और अधिक उत्साह जगाया जाए। तकनीक पर बढ़ती निर्भरता के चलते ऑनलाइन वोटिंग एक कारगर तरीका हो सकता है। दुनिया के कई हिस्सों में इसे अपनाया गया है। होनोलुलू में हाल ही में इसे आजमाया भी गया है और इसके परिणाम काफी उत्साहजनक आए हैं।

भारत में इस समय करीब 10 करोड़ इंटरनेट यूजर हैं। साल 2014 यानी संभवत: अगले चुनावों के वक्त इस आंकड़े के करीब पांच गुना होने की उम्मीद है। ज्यादातर यूजर 18 से 45 साल की उम्र के हैं। ऑनलाइन वोटिंग के जरिए इन्हें वोट डालने के लिए आकर्षित किया जा सकता है। यदि इन्हें वोट डालने के लिए सुविधा दे दी जाए, तो वोट न देने वालों की संख्या में करीब 25 फीसदी की कमी आ सकती है। आने वाले वक्त में तकनीक की पहुंच और अधिक लोगों तक होने पर यह आंकड़ा और भी बढ़ सकता है।

अब सवाल यह है कि क्या वास्तव में ऐसी सुविधा मुहैया कराए जाने पर ये लोग वोट डालने आ पाएंगे...। इसे आप ऐसे समझ सकते हैं...। हाल ही में हुए चुनावों के दौरान ज्यादातर समाचार पोर्टलों पर राजनीतिक दलों की ओर चल रहे रुझानों को लेकर मतदान कराए गए। ज्यादातर परिणाम

राजग के पक्ष में दिखे और इससे उत्साहित भारतीय जनता पार्टी को लगने लगा था कि उसके प्रधानमंत्री पद के दावेदार लालकृष्ण आडवाणी का प्रधानमंत्री बनना लगभग तय है। लगभग सभी ऐसे मतदानों में उन्हें 50 फीसदी से ज्यादा वोट मिल रहे थे। ताज्जुब की बात यह है कि चुने गए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के पक्ष में बहुत कम यानी 20 फीसदी के आसपास ही वोट पड़ रहे थे। उनसे कहीं ज्यादा वोट तो राहुल गांधी, मायावती, नीतीश कुमार को मिले।

ये सर्वेक्षण हरगिज गलत नहीं थे, बल्कि ये इंटरनेट यूजर्स की राय थे। लेकिन ये राय जमीनी नहीं हो सकी, क्योंकि इनमें से ज्यादातर वोटर अपने लैपटॉप को छोड़कर वातानुकूलित ड्रॉइंग रूम से निकलकर बूथ तक जाने की जहमत नहीं उठाते। ये वोटर अपना काम लैपटॉप पर बटन दबाकर ही खत्म समझ लेते हैं।

इन मतदाताओं को वोट देने के लिए प्रेरित करने को चुनाव आयोग को कुछ और मेहनत करनी होगी। जरूरत है एक ऐसा इंटरफेस मुहैया कराए जाने की, जिससे यूजर सीधा इंटरनेट पर आए, अपना क्षेत्र और उम्मीदवार चुने, वोटर आईडी कार्ड पर दिया गया नंबर डाले और कर दे वोट। दोबारा न डाल सके इसके लिए इस आईडी को 'लॉक' किया जा सकता है। ...हो गया घर बैठे वोट... हर तरह से सुरक्षित वोटिंग है ये! यदि अगले चुनावों तक का लक्ष्य इसे बनाया जाए तो यह पूरी तरह संभव है। इसके लिए चुनाव आयोग के पोर्टल को ही प्लेटफॉर्म बनाया जा सकता है।

दूसरी ओर प्रयास राजनीतिक दलों और नेताओं को भी करना है। अपने-अपने व्यक्तिगत पोर्टल बनाने के साथ-साथ उन्हें इस ओर भी ध्यान देना चाहिए। उनके पास अगले पांच साल का समय है, जिसका उपयोग वह इस व्यवस्था को वास्तविक रूप में लाने में कर सकते हैं। इससे चुनावों पर हर बार किए जाने वाले करीब 18 हजार करोड़ रुपये के खर्च में भी कमी आएगी। साथ-साथ उनके खुद के पोर्टल की प्रासंगिकता भी बनी रहेगी।

आजकल हर सुविधा घर पर ही उपलब्ध कराए जाने के दौर में इसके कई और भी फायदे हैं...इनके बारे में चर्चा फिर कभी...

Monday, June 08, 2009

नहीं रहे रंगमंच के 'हबीब' तनवीर

धर्मेंद्र कुमार
वरिष्ठ रंगकर्मी पद्मभूषण हबीब तनवीर का सुबह 6.30 बजे एक अस्पताल में हृदयगति रुकने से निधन हो गया।

रंगकर्म को एक नई बुलंदी तक ले जाने वाले हबीब तनवीर 86 वर्ष के थे और कई हफ्तों से बीमार थे। उन्हें पहले हजेला अस्पताल में भर्ती कराया गया था। बाद में डॉक्टरों की सलाह पर उन्हें नेशनल अस्पताल ले जाया गया। उन्होंने जब आखिरी सांस ली तब उनकी बेटी नगीना उनके पास मौजूद थीं।

उनका जन्म अविभाजित मध्यप्रदेश के रायपुर में एक सितंबर 1923 को हुआ था। उनके पिता हफीज अहमद खान पेशावर (पाकिस्तान) के रहने वाले थे। स्कूली शिक्षा रायपुर और कला स्नातक की पढ़ाई नागपुर के मौरिस कॉलेज से करने के बाद वह एमए करने अलीगढ़ गए। युवा अवस्था में ही उन्होंने कविताएं लिखना आरंभ कर दिया था और उसी दौरान उपनाम तनवीर उनके साथ जुड़ा। वह 1945 में मुंबई गए और ऑल इंडिया रेडियो से बतौर प्रोड्यूसर जुड़ गए। उसी दौरान उन्होंने कुछ फिल्मों में गीत लिखने के साथ अभिनय भी किया।

मुंबई में तनवीर प्रगतिशील लेखक संघ और बाद में इंडियन पीपुल्स थियेटर (इप्टा) से जुड़े। ब्रिटिश काल में जब एक समय इप्टा से जुड़े अधिकांश वरिष्ठ रंगकर्मी जेल में थे उनसे इस संस्थान को संभालने के लिए भी कहा गया। बाद में 1954 में उन्होंने दिल्ली का रुख किया और वहां उन्होंने कुदेसिया जैदी के हिंदुस्तान थियेटर के साथ काम किया। इसी दौरान उन्होंने बच्चों के लिए भी कुछ नाटक किए।

दिल्ली में तनवीर की मुलाकात अभिनेत्री मोनिका मिश्रा से हुई जो बाद में उनकी जीवनसंगिनी बनीं। यहीं उन्होंने अपना पहला महत्वपूर्ण नाटक 'आगरा बाजार' किया। 1955 में तनवीर इग्लैंड गए और रॉयल एकेडमी ऑफ ड्रामेटिक्स आर्ट्स (राडा) में प्रशिक्षण लिया। इस दौरान उन्होंने यूरोप का दौरा करने के साथ वहां के थियेटर को करीब से देखा और समझा।

अनुभवों का खजाना लेकर तनवीर 1958 में भारत लौटे और तब तक वह खुद को एक पूर्णकालिक निर्देशक के रूप में ढाल चुके थे। इसी समय उन्होंने शूद्रक के प्रसिद्ध संस्कृत नाटक 'मृच्छकटिका' पर केंद्रित नाटक 'मिट्टी की गाड़ी' तैयार किया। इसी दौरान नया थियेटर की नींव तैयार होने लगी थी और छत्तीसगढ़ के छह लोक कलाकारों के साथ उन्होंने 1959 में भोपाल में 'नया थियेटर' की नींव डाली।

नया थियेटर ने भारत और विश्व रंगमंच पर अपनी अलग छाप छोड़ी। लोक कलाकारों के साथ किए गए प्रयोग ने नया थियेटर को नवाचार के एक गरिमापूर्ण संस्थान की छवि प्रदान की। 'चरणदास चोर' उनकी कालजयी कृति है। यह नाटक भारत सहित दुनिया में जहां भी हुआ सराहना और पुरस्कार अपने साथ लाया।

छत्तीसगढ़ की नाचा शैली में 1972 में किया गया उनका नाटक 'गांव का नाम ससुराल, मेरा नाम दामाद' ने भी खूब वाहवाही लूटी। नाटक 'जिने लाहौर नहीं वेख्या ओ जम्या नहीं' का नाम भी उनकी कालजयी रचनाओं में लिया जाता है।

प्यार और अकीदत से लोग उन्हें हबीब साहब कहते थे। उन्होंने फिल्मों के क्षेत्र में भी अपने हाथ आजमाए। कुछ फिल्मों की पटकथा लिखने के अलावा उन्होंने चंद फिल्मों में अभिनय भी किया था। उन्होंने रिचर्ड एटनबरो की ऑस्कर विजेता फिल्म 'गांधी' में भी बतौर अभिनेता काम किया।

अपने जीवन काल में उन्होंने करीब 10 फिल्मों में भी काम किया। इनमें राही, फुटपाथ, गांधी, ये वो मंजिल तो नहीं, हीरो हीरालाल, प्रहार, मेंहदी और मंगल पांडे प्रमुख हैं। आमिर खान की 'मंगल पांडे' में उन्होंने बहादुर शाह जफर की भूमिका निभाई थी। उनकी आखिरी फिल्म सुभाष घई द्वारा बनाई गई 'ब्लैक एंड व्हाइट' थी। फिल्म निर्माण के क्षेत्र से भी वह सक्रिय रूप से जुड़े रहे। मशहूर फिल्म निर्माता सलीम के साथ जुड़कर उन्होंने कई फिल्मों के निर्माण में भी सहयोग दिया। इनमें मिट्टी, जिगर, दूध का कर्ज, द डॉन, मेंहदी आदि प्रमुख हैं।

विश्व रंगकर्म की जानीमानी शख्सियत हबीब तनवीर की जीवन शैली सादगीपसंद थी और वह सत्ता के गलियारों में कभी मदद की आस लेकर नहीं गए। हमेशा यह बात उठती रही कि अपना पूरा जीवन थियेटर को समर्पित करने के बाद भी उन्हें क्या मिला लेकिन तनवीर को इसका मलाल कभी नहीं रहा।

अपने जीवन की सांझ में वह आत्मकथात्मक पुस्तक पर काम कर रहे थे। समझा जाता है कि यह किताब पूर्णता के नजदीक पहुंच गई थी। अब यह जिम्मेदारी उनकी एकमात्र वारिस बेटी नगीना की है कि वह इस किताब को पाठकों तक पहुंचाए।

तनवीर को 1969 में और फिर 1996 में संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार मिला। 1983 मे पद्मश्री और 2002 में पद्मभूषण मिला। वह 1972 से लेकर 1978 तक राज्यसभा के सदस्य भी रहे।
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