Friday, November 21, 2008

कब रुकेंगे ये धमाके...

धर्मेंद्र कुमार
'सूरत में एक के बाद एक 18 धमाके, 100 से ज्यादा मरे'... न... न... चौंकिए नहीं... फिलहाल हम इस खबर से बाल-बाल बच गए हैं। मंगलवार को गुजरात पुलिस ने पूरी सक्रियता दिखाई और सूरत शहर में एक के बाद एक 18 बम ढूंढ निकाले। पुलिस ने शहर का हर कोना, हर पेड़, हर गड्ढा और हर लावारिस पड़ा टिफिन छान मारा, और बम ढूंढ़ लिए। अभी कुछ और बम भी मिल सकते हैं...

गौर कीजिए! यह सक्रियता तीन-चार दिन पहले, या कहिए हर रोज दिखाई जाती या यूं कहें कि यह 'रेड अलर्ट' रोज रहे तो क्या बेंगलुरु और अहमदाबाद जैसी घटनाओं से बचा नहीं जा सकता था! उजड़ गए 100 से ज्यादा परिवारों को बचाया नहीं जा सकता था! किसका दोष है यह... प्रशासन का, पुलिस का, नेताओं का या कोई और ही है इसका जिम्मेदार! समझ नहीं आता, किसके सिर थोपें इसका दोष! जब कोई घटना घट जाती है तो हममें न जाने कहां से यह अतिरिक्त फुर्ती आ जाती है। हमारे पुलिसकर्मी शारीरिक रूप से पूरी तरह फिट हो जाते हैं! अधिकारियों द्वारा पर्याप्त संख्या में पुलिसकर्मियों का न होने का दावा न जाने कहां फुर्र हो जाता है! एक पल में सब कुछ ठीक-ठाक, कसी हुई व्यवस्था हम आम नागरिकों के सामने दिखने लगती है। यही नहीं, प्रशासन की आम जनता से भी और ज्यादा सहयोगी होने की उम्मीद भी बलवती हो जाती है।

सरकार से अगर कोई उम्मीद करें, तो अब 'जांच' होगी। सभी राजनीतिक दलों के नेता एक-दूसरे को दोषी ठहराने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ेंगे। अपने 'कपड़े' और 'जूते' बचाते हुए विस्फोट प्रभावितों से मिलने जाने का दौर शुरू होगा। कुछ नेताओं ने अपने आकाओं की 'शह' पर यह अभियान शुरू भी कर दिया है। सत्तापक्ष सभी सुविधाएं मुहैया कराने का दावा करेगा तो विपक्ष प्रभावितों की ठीक से देखभाल न करने का आरोप लगाएगा। देश की जनता को यह पूरी 'प्रक्रिया' रट गई है, लेकिन हमारे नेताओं को 'अपडेट' होने में न जाने कितना वक्त लगेगा।

अब बात हमारी खुफिया एजेंसियों की 'सतर्कता' की। अहमदाबाद में सीरियल ब्लास्ट बेंगलुरु बम धमाकों के अगले ही दिन हुए। बेंगलुरु धमाकों के बाद पूरे देश में हाई अलर्ट घोषित कर दिया गया था। फिर कैसे अहमदाबाद में एक-दो नहीं, 18 बम जगह-जगह रख दिए गए? उस समय क्या हमारी जांच एजेंसियां कान में तेल डालकर सो रही थीं। इतने सारे बम धमाकों के पीछे कोई एक-दो आदमी तो होंगे नहीं। फिर उनकी कारगुजारियों से ये एजेंसियां कैसे बेखबर रह गईं? 2002 के दंगों के बाद से ही गुजरात और नरेंद्र मोदी दोनों आतंकवादियों के निशाने पर हैं, इसके बावजूद खुफिया एजेंसियों की यह चूक कई बड़े सवाल खड़े करती है। देश में आतंकवादी खतरों से निपटने के लिए हमें सबसे पहले इन एजेंसियों को ही जवाबदेह बनाना पड़ेगा... और इसकी शुरुआत अब हो ही जानी चाहिए, क्योंकि देरी का मतलब है किसी और शहर में धमाकों की खबर सुनने को हम तैयार रहें...

बेंगलुरु, अहमदाबाद या सूरत ही नहीं, देश के हर शहर, हर जगह लगभग यही नजारा है। अभी दो दिन पहले, पड़ोस में एक कार के चोरी हो जाने के बाद रातोंरात कालोनी के बाहर गेट लग गया। रात को ऑफिस से घर लौटे तो पुलिस ने अपनी जीप पीछे लगा दी। घर के सामने गाड़ी से उतरते ही सवालों की झड़ी भी लगा दी। कहां से आ रहे हो? कौन हो? किसकी गाड़ी है? इतनी रात गए कौन सा ऑफिस खुलता है? पूरा परिचय और रात में घर से बाहर होने की वजह बता देने के बाद घर में घुस सका। कोई एतराज नहीं, इस पूछताछ से! लेकिन काश! यह चुस्ती-फुर्ती रोज हो तो कैसा रहे! फिर, न शायद बम फटेंगे, न मोहल्ले में चोरियां होंगी... और तब शायद पुलिस की पूछताछ भी प्यारी लगेगी।

बदले-बदले से 'सरकार' नजर आते हैं...

धर्मेंद्र कुमार
हाल ही में सुर्खियां बनीं इन तीन खबरों पर नजर डालिए। पहली- अमेरिकी खुफिया एजेंसियों ने पाया कि अफगानिस्तान की राजधानी काबुल स्थित भारतीय दूतावास पर हुए हमले में आईएसआई का हाथ है। बकौल उनके, इसके पुख्ता प्रमाण उनके पास मौजूद हैं। दूसरी-बुश का बयान... आखिर ये आईएसआई किसका हुक्म मानती है? तीसरी-सार्क सम्मेलन में भाग लेने पहुंचे पाकिस्तानी प्रधानमंत्री गिलानी ने भारतीय दूतावास पर हुए हमले में आईएसआई की भूमिका की स्वतंत्र जांच कराने के लिए आश्वस्त किया।

इन खबरों को ध्यान से देखें तो, ये तीनों ही खबरें संभवत: अब तक के कूटनीतिक इतिहास में पहली बार एक साथ सुनने को मिली हैं। जरा गौर फरमाइए! अमेरिकी खुफिया एजेंसियों को 'पहली बार' एहसास हुआ कि आतंकी हमलों में आईएसआई का 'हाथ' है। इसका 'सबूत' भी उन्हें मिल गया है। किसी अमेरिकी राष्ट्रपति का 'परिचय' भी आईएसआई से हो गया। और, सबसे खास बात यह रही कि किसी पाकिस्तानी हुक्मरान ने आईएसआई की 'किसी' हरकत की स्वतंत्र जांच कराने की मंजूरी भी दे दी।

आखिर क्या राज है भारत के इस अचानक बढ़े 'प्रभाव' का? क्या वजह है कि यकायक भारत की आतंक के खिलाफ लड़ाई को लेकर अमेरिका भी चिंतित हो गया है? चलिए, अब इन खबरों के तारों को आपस में जोड़ते हैं। संभवत: क्या हुआ होगा, जो हमें ये खबरें नसीब हुईं। पिछले हफ्ते, अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (आईएईए) ने सर्वसम्मति से सुरक्षा मानक समझौते को मंजूरी दे कर अंतरराष्ट्रीय परमाणु कारोबार में शिरकत की दिशा में भारत की राह की एक बड़ी बाधा दूर कर दी। अमेरिका से इसकी प्रतिक्रिया कुछ यूं मिली...भारत में अमेरिकी राजदूत डेविड सी मल्फोर्ड ने एक बयान में कहा, "हम परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह में भारत को विशेष छूट और अमेरिकी कांग्रेस की मंजूरी दिलाने के लिए कड़ी मेहनत करेंगे।"

क्या यह नहीं लग रहा है कि अमेरिका के लिए भारत अचानक बहुत महत्वपूर्ण हो गया है। इसका श्रेय हम अपने अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री को दें या परमाणु करार के लिए उनकी की गई 'अपार' मेहनत को। सब कुछ पैसे का खेल है! अरबों रुपये की डील के चलते अब अमेरिका को भारत की 'चिंता' करने का वक्त मिला है। इस चिंता के चलते 'पुराने दोस्त' पाकिस्तान को भी थोड़ा-बहुत कसा जा सकता है। संभवत: डील का यह एक 'पहला' फायदा हुआ है। लेकिन, क्या परमाणु करार इसकी कीमत है? अगर सही मायने में, यह कीमत है तो कहीं ये ज्यादा तो नहीं। कहीं वामदलों सहित विपक्ष की आशंकाएं सही साबित होने तो नहीं जा रही हैं? भविष्य में क्या हो सकता है? कितना समय लगेगा हमें एक और 'पुराना दोस्त' बनने में? कई सवाल उभरे हैं एक साथ। हमें समय रहते ध्यान देना जरूरी है।

अमेरिका के पुराने कूटनीतिक इतिहास को देखें, तो वहां चाहे डेमोक्रेटिक सत्ता में रहें या रिपब्लिक, विदेश नीति पर कोई खास अंतर नहीं पड़ता। निहित हितों के चलते कोई भी अमेरिका का शिकार बन सकता है। अब चाहे वह इराक हो, अफगानिस्तान हो या फिर कोई और। इसी क्रम में ईरान को भी देखा जा सकता है।

भारत के संदर्भ में देखें, तो पाकिस्तान, अमेरिका का बहुत पुराना दोस्त रहा है। अमेरिका-पाकिस्तान की यह 'बेमेल' दोस्ती दक्षिण एशिया में उसके हितों को देखते हुए बहुत महत्वपूर्ण है। आतंकी गतिविधियों पर नजर और नियंत्रण रखने की आड़ में जहां उसने इस क्षेत्र में अपने सैन्य आधार मजबूत किए हैं, वहीं दक्षिण एशियाई देशों पर कूटनीतिक दबाव बनाए रखने में भी महत्वपूर्ण सफलता हासिल की है। भौगोलिक दृष्टि के लिहाज से पहले पाकिस्तान और अब अफगानिस्तान भी, अमेरिका के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं। शायद एक कारण यह भी है कि अमेरिका इस क्षेत्र से चाहते हुए भी सैन्य बलों में कटौती नहीं कर पा रहा है।

अभी, एक खबर के अनुसार परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह द्वारा बनाए गए ड्राफ्ट में भी भारत द्वारा भविष्य में किए जाने वाले परमाणु परीक्षणों पर चुप्पी साध ली गई है। यही नहीं, इस ड्राफ्ट के अनुसार भारत को परमाणु अप्रसार संधि पर दस्तखत करने के लिए भी कहा जा सकता है। हालांकि, भारत ने अमेरिका को स्पष्ट तरीके से कह दिया है कि वह इसे स्वीकार नहीं करेगा। कुछ ऐसी ही 'उम्मीदें' परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह के दूसरे देशों की भी हैं। और, अमेरिका ने भारत को इस बारे में आगाह भी किया है कि वह सदस्य देशों की उन 'उम्मीदों' को भी ड्राफ्ट में शामिल कर सकता है। हालांकि ये भरोसा भी दिलाने की कोशिश की है कि ये सब 'उम्मीदें' हैं, न कि 'शर्तें'... लेकिन, भारत को आसन्न परेशानियों को देखते हुए बिना हड़बड़ी के फूंक-फूंक कर कदम उठाने की जरूरत है। अन्यथा आगे चलकर हम अनचाही मुसीबतों के जाल में फंसते चले जाएंगे।

नेपाल छिटक गया, कोसी भटक गई

धर्मेंद्र कुमार
बिहार अब तक की सबसे बड़ी आपदा का सामना कर रहा है। छोटे-छोटे बच्चों को कंधों पर लिए गर्दन तक भरे पानी से होकर गुजरते लोगों की तस्वीरें टीवी पर लगातार दिखाई जा रही हैं। वेबसाइटों और अखबारों के पन्ने बाढ़ की कहानियों से भरे पड़े हैं। देशभर से कई समाजसेवी संगठन और लोग मदद के लिए आगे आ रहे हैं। राहत सामग्री भेजी जा रही है। कुल मिलाकर जिंदगी बचाने के लिए जद्दोजहद जारी है। और हां... जीत हमेशा की तरह मानव की ही होने वाली है। लेकिन, कुछ सवाल उभर रहे हैं...

क्या बचा जा सकता था इस आपदा से? शायद हां। कहने को तो हम दोषी ठहरा सकते हैं कमजोर आपदा प्रबंधन और प्रशासनिक व्यवस्थाओं को...लेकिन, इस त्रासदी के लिए पड़ोसी देशों के साथ हमारी विदेश नीति भी कम जिम्मेदार नहीं है।

कभी 'छोटे भाई' का दर्जा पाए और हाल ही में कुछ 'गैर-जिम्मेदाराना' व्यवहार का प्रदर्शन करता हुआ नेपाल भी आपदा की इस घड़ी में दूर खड़ा ताली बजाता-सा दिख रहा है। उस पर नेपाली सरकार का यह बयान कि बाढ़ को रोक सकने में सक्षम बांध की मरम्मत का सारा दारोमदार तो भारत पर है, नेपाल क्या कर सकता है।

अगर हम अपने गिरेबां में झांकें तो संभवत: इस त्रासदी के बीज शायद सात साल पहले नेपाल के राजमहल में हुए नरसंहार के दौरान ही बोए जा चुके थे। बात है तो बड़ी अजीब सी...लेकिन कहीं न कहीं सच भी लगती है।

चलिए... केवल सात साल पुराने इतिहास के आइने में झांक कर देखने का प्रयास करते हैं। राजमहल में राजा बीरेंद्र विक्रम शाह और उनके परिवार की 'रहस्यमयी' मौत के बाद की नेपाली राजनीति पर एक नजर डालते हैं। राजा बीरेंद्र विक्रम शाह और युवराज दीपेंद्र की मौत के बाद ज्ञानेंद्र राजा बने और उनके साहबजादे पारस युवराज बने। ऐसा लगने लगा कि नेपाल में एक राजा गया और दूसरे ने शासन की बागडोर संभाल ली है। भारतीय विदेश नीति के तत्कालीन कर्ता-धर्ताओं ने बदलती दुनिया पर गौर न करते हुए राजा ज्ञानेंद्र को आधिकारिक मान्यता दे दी। पूरी दुनिया में लोकतंत्र की पैरवी करने वाले भारत ने एक राजा या यह कहें कि एक नए 'तानाशाह' को बिना शर्त समर्थन दे डाला।

उस वक्त बजाय इसके नेपाल में लोकतांत्रिक व्यवस्था को पुष्ट होने में मदद दी जा सकती थी। भारत अपने प्रभाव का उपयोग वहां इस काम में कर सकता था। इससे कमजोर होते नेपाली राजनीतिक दलों को भारत के रूप में एक पालनहार नजर आता। लेकिन हुआ इसका ठीक उल्टा। समय प्रवाह के चलते राजा ज्ञानेंद्र और नेपाली राजनीतिक दलों का ढांचा और कमजोर होता चला गया। और, मौका मिला लगातार संघर्ष कर रहे माओवादियों को। कमजोर राजनीतिक दलों के खिलाफ लगातार मजबूत हो रहे माओवादी राजा ज्ञानेंद्र को बेदखल करते हुए सत्ता में लौटे। हुआ वही जिसकी माओवादियों से आशंका थी। प्रधानमंत्री प्रचंड ने पद संभालते ही भारत के बजाय पहले चीन की यात्रा करने की घोषणा की। और चीन हो भी आए। हालांकि, उनका भारत दौरा भी प्रस्तावित है।

बिहार में आई बाढ़ के समय को भी नजरंदाज नहीं किया जा सकता है। अपने यहां बदतर होती स्थिति का हवाला देते हुए नेपाल लगातार इस क्षेत्र में पानी छोड़ रहा है। पहले ऐसी नौबत कभी नहीं आई। अभी भारत सरकार को बाढ़ की आपदा से लोगों को बचाने का ही काम नहीं, बल्कि और भी कई आफतों से दो-चार होना है। बाढ़ के बाद बीमारियां फैलने की पूरी आशंका है। करीब 75 फीसदी लोग बाढ़ग्रस्त क्षेत्र से बाहर निकल चुके हैं। बाकी के लोग जानमाल की हिफाजत के लिए वहीं डटे हुए हैं। लेकिन, जब बीमारियां फैलेंगी तो कितने और लोगों को वहां से विस्थापित होना पड़ेगा, कहना मुश्किल है।

जानकारों के अनुसार बाढ़ग्रस्त क्षेत्र को लेकर सबसे बड़ी आशंका इसके भौगोलिक महत्व को लेकर है। 16 जिले यानी क्षेत्रफल के हिसाब से करीब आधे बिहार का यह क्षेत्र भारत के साथ खुली सीमाओं वाले पड़ोसी देश नेपाल के अलावा बांग्लादेश को भी छूता है। घुसपैठ करने वाले तत्वों के लिए यह क्षेत्र अब लगभग 'खुला दरबार' हो सकता है। माओवादियों और नक्सलियों के लिए अपनी गतिविधियों को चलाने के लिए आवश्यक भूमि की पूर्ति यहां से हो सकती है। यहां यह कहने की भी जरूरत नहीं है कि इस काम में उनकी मदद और कौन से पड़ोसी देश कर सकते हैं। यह माना जा सकता है कि 'छोटा भाई' अपने शब्दों में अब बराबरी का दर्जा चाहता है। और, इसके लिए उसे अपने 'बड़े भाई' की गोद से छिटकने से भी गुरेज नहीं है।

SAT tests...

The following questions and answers were collated from the SAT tests given to 16-year-old students!

Q: Name the four seasons.
A: Salt, pepper, mustard and vinegar

Q: Explain one of the processes by which water can be made safe to drink.
A: Flirtation makes water safe to drink because it removes large pollutants like grit, sand, dead sheep and canoeists.

Q: How is dew formed?
A: The sun shines down on the leaves and makes them perspire.

Q: What is a planet?
A: A body of earth surrounded by sky.

Q: What causes the tides in the ocean?
A: The tides are a fight between the Earth and the Moon. All water tends to flow toward the moon because there is no water on the moon and nature abhors a vacuum. I forget where the sun joins in this fight.

Q: In a democratic society, how important are elections?
A: Very important. Sex can only happen when a male gets an election.

Q: What are steroids?
A: Things for keeping carpets on the stairs.

Q: What happens to your body as you age?
A: When you get old, so do your bowels and you get intercontinental.

Q: What happens to a boy when he reaches puberty?
A: He says good-bye to his boyhood and looks forward to adultery.

Q: Name a major disease associated with cigarettes.
A: Premature death.

Q: How can you delay milk turning sour?
A: Keep it in the cow.

Q: How are the main parts of the body categorized? (e.g., abdomen).
A: The body is consisted into three parts - the brainium, the borax and the abdominal cavity. The brainium contains the brain, the borax contains the heart and lungs and the abdominal cavity contains the five bowels, A, E, I, O and U.

Q: What is the most common form of birth control?
A: Most people prevent contraption by wearing a condominium.

Q. Give the meaning of the term "Caesarian Section"
A. The caesarian section is a district in Rome.

Q: What is a seizure?
A: A Roman Emperor..

Q: What is a terminal illness?
A: When you are sick at the airport.

Who is the biggest...

Once upon a time, sage Narada came into the presence of the Lord...

The Lord asked him, "Narada, in all your travels through the world have you been able to discover the principal secret of the universe...? Have you been able to understand the mystery behind this world...? Everywhere you look you see the five great elements, earth, water, fire, air and ether... Which do you think occupies the first place...? Of everything that is to be found in the universe what is the most important of all...?"

Narada thought for awhile and then answered, "Lord, of the five elements the densest, biggest and most important is surely the earth element..."

The Lord answered, "How can the earth element be biggest when three-fourths of the earth is covered by water and only one-fourth is land...? Such a big earth is being swallowed by the water... What is bigger, the thing that is being swallowed or that which is swallowing it...?"

Narada acknowledged that water must be bigger because it had swallowed the Earth...

The Lord continued his questioning...

He said, "But Narada, we have the ancient tale that when the demons hid in the waters, then in order to find them, a great sage came and swallowed up the whole ocean in one gulp... Do you think the sage is greater or the ocean is greater...?"

Narada had to agree that without doubt the sage was certainly greater than the water he had swallowed...

The Lord continued, "But it is said that when he left his earthly body, this same sage became a star in the heavens... Such a great sage is now appearing only as a small star in the vast expanse of the sky... Then what do you think is bigger; is it the sage or is it the sky that is bigger...?"

Narada answered, "Swami, the sky is surely bigger than the sage..."

Then the Lord asked, "Yet we know that one time when the Lord came as avatar and incarnated in a dwarf-body, he expanded himself so hugely that he was able to cover both the earth and the sky with his one foot... Do you think God's foot is bigger or the sky...?"

"O, God's foot is certainly bigger," Narada replied...

But, the Lord asked, "If God's foot is so big, then what about his infinite form...?"

Now, Narada felt that he had come to the final conclusion, "Yes," he said exultantly, "the Lord is the biggest of all... He is infinite beyond measure... In all the worlds there is nothing greater than He..."

But the Lord had still one more question, "What about the devotee who has been able to imprison this infinite Lord within his own heart...? Now tell me, Narada, who is greater, the devotee who has the Lord locked up or the Lord who is locked up by the devotee...?"

Narada had to admit that the devotee was even greater than the Lord, and that, therefore, the devotee must rank first in importance over everything, surpassing even the Lord...

Simply wonderful...what a teacher!

Donna's fourth grade classroom looked like many others I had seen in the past. The teacher's desk was in front and faced the students. The bulletin board featured student work. In most respects, it appeared to be a typically traditional elementary classroom. Yet something seemed different that day when I entered it for the first time.

My job was to make classroom visitations and encourage implementation of a training program that focused on language arts ideas that would empower students to feel good about themselves and take charge of their lives. Donna was one of the volunteer teachers who participated in the project.

I took an empty seat in the back of the room and watched. All the students were working on a task, filling a sheet of notebook paper with thoughts and ideas. The ten-year-old student next to me was filling her page with "I Can'ts." "I can't kick the soccer ball past second base." "I can't do long division with more than three numerals." "I can't get Debbie to like me." Her page was half full and she showed no signs of letting up. She worked with determination and persistence. I walked down the row glancing at students' papers. Everyone was writing sentences, describing things they couldn't do.

By that time, the activity engaged my curiosity, so I decided to check with the teacher to see what was going on, but I noticed she too was busy writing. I felt it best not to interrupt. "I can't get John's mother to come for a teacher conference." "I can't get my daughter to put gas in the car." "I can't get Alan to use words instead of fists."

Thwarted in my efforts to determine why students and teacher were dwelling on the negative instead of writing the more positive "I Can" statements, I returned to my seat and continued my observations.

Students wrote for another ten minutes. They were then instructed to fold the papers in half and bring them to the front. They placed their "I Can't" statements into an empty shoe box. Then Donna added hers. She put the lid on the box, tucked it under her arm and headed out the door and down the hall.

Students followed the teacher. I followed the students. Halfway down the hallway, Donna entered the custodian's room, rummaged around and came out with a shovel. Shovel in one hand, shoe box in the other, Donna marched the students out to the school to the farthest corner of the playground. There they began to dig. They were going to bury their "I Can'ts!"

The digging took over ten minutes, because most of the fourth graders wanted a turn. The box of "I Can'ts" was placed in a position at the bottom of the hole and then quickly covered with dirt. Thirty-one 10 and 11 year-olds stood around the freshly dug grave site. At this point, Donna announced, "Boys and girls, please join hands and bow your heads." They quickly formed a circle around the grave, creating a bond with their hands.

They lowered their heads and waited. Donna delivered the eulogy.

"Friends, we are gathered here today to honor the memory of 'I Can't.' While he was with us here on Earth, he touched the lives of everyone, some more than others. We have provided 'I Can't' with a final resting place and a headstone that contains his epitaph. He is survived by his brothers and sisters, 'I Can,' 'I Will,' and 'I'm Going to Right Away.' They are not as well known as their famous relative and are certainly not as strong and powerful yet. Perhaps some day, with your help, they will make an even bigger mark on the world. May 'I Can't' rest in peace and may everyone present pick up their lives and move forward in his absence. Amen."

As I listened, I realized the students would never forget this day. Writing "I Can'ts," burying them and hearing the eulogy. That was a major effort on this part of the teacher. And she wasn't done yet.

She turned the students around, marched them back into the classroom and held a wake. They celebrated the passing of "I Can't" with cookies, popcorn and fruit juices. As part of the celebration, Donna cut a large tombstone from butcher paper. She wrote the words "I Can't" at the top and put RIP in the middle. The date was added at the bottom. The paper tombstone hung in Donna's classroom for the remainder of the year.

On those rare occasions when a student forgot and said, "I Can't," Donna simply pointed to the RIP sign. The student then remembered that "I Can't" was dead and chose to rephrase the statement. I wasn't one of Donna's students. She was one of mine. Yet that day, I learned an enduring lesson from her as years later, I still envision that fourth grade class laying to rest, "I Can't."

--Phillip B. Childs

Tuesday, November 18, 2008

कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी...

धर्मेंद्र कुमार

दुनिया बदल रही है... शुरुआत सबसे शक्तिशाली देश अमेरिका से हो रही है। इतिहास के पन्नों को पलटें, तो हर बार जब भी कोई बड़ी उथल-पुथल हुई, कई बड़ी शक्तियां धूल-धूसरित हो गईं और कुछ नई शक्तियां अंतरराष्ट्रीय पटल पर उभरकर आईं। यहां तक कि समय ने कई देशों के राजनीतिक नक्शे तक बदल डाले। पहले घोर आर्थिक संकट, फिर 219 साल के अमेरिकी इतिहास में पहली बार दुनिया के सबसे शक्तिशाली पद पर एक अश्वेत व्यक्ति काबिज हुआ।

हालांकि, बराक हुसैन ओबामा को अमेरिकी राष्ट्रपति की कुर्सी मिलने में कुछ भी 'आश्चर्यजनक' नहीं... पूरे चुनावी अभियान के दौरान लगभग सभी ओबामा को राष्ट्रपति मान ही चुके थे। चुनाव जीतने के बाद उनका सारी दुनिया को साथ लेकर चलने का संकल्प आर्थिक संकट से जूझते एक 'अमीर' देश में बड़ा परिवर्तन है। इराक से सैनिकों की वापसी और अफगानिस्तान में दूसरे देशों से सैन्य बलों को बढ़ाने के मसले पर ओबामा के रुख को भी इस नज़र से देखा जा सकता है। दुनिया की आर्थिक स्थिति को सुधारने के लिए हाल ही में आयोजित ऐतिहासिक जी-20 शिखर सम्मेलन की प्रमुख घोषणा से स्पष्ट हो गया कि विकासशील देशों का समूह भविष्य में वैश्विक वित्तीय व्यवस्था के सुधारों में मुख्य भूमिका निभाएगा। इसमें जी-7 देशों की भूमिका का कोई उल्लेख नहीं होने से यह भी साफ हो गया कि उभरती अर्थव्यवस्थाएं ही आने वाले दिनों में नीति निर्धारण की प्रक्रिया में मजबूत उपस्थिति दर्ज कराएंगी। यदि ऐसा हुआ तो भारत के लिए आर्थिक सिरमौर बनने की संभावनाएं काफी प्रबल हो जाएंगी। दुनिया के कई बड़े नेता तो नए शक्ति संतुलन के बारे में बोलने भी लगे हैं। बैठक के बाद ब्राज़ील के राष्ट्रपति लुइस इनैशियो लूला डी सिल्वा ने दुनिया के राजनीतिक भूगोल को नई दिशा में जाता हुआ बताया।

...तो यह है दुनिया का बदला हुआ चेहरा... इस संदर्भ में सबसे बड़े लोकतंत्र भारत की ओर देखें, तो यहां भी पहली बार कुछ नई विमाएं दिख रही हैं... चलिए, एक नजर डालते हैं इन पर...

...आर्थिक संकट आया... पहले अमेरिका पर, फिर धीरे-धीरे इसने पैर पसारे दुनिया के सभी बड़े देशों में... कई अमेरिकी बैंक और वित्तीय संस्थान तबाह हुए... ब्रिटेन भी बचा नहीं रहा... असर दूसरे यूरोपियन देशों पर भी पड़ा... इधर, बाकी एशियाई देशों की तरह भारत भी इससे अछूता नहीं रहा... नि:संदेह, भारत पर असर पड़ा है... कुछ और पड़ना अभी बाकी है... लेकिन गौर कीजिए... दूसरे कई मजबूत देशों की तरह भारत में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) अनुमान पर मामूली अंतर ही पड़ा...

अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) ने कुछ दिन पहले जारी अपने ताजा वैश्विक आर्थिक दृष्टिकोण में अनुमान ज़ाहिर किया था कि भारत की विकास दर 7-8 फीसदी रहेगी। जानकारों के अनुसार सात फीसदी की विकास दर भी चिंता का विषय नहीं होना चाहिए। भारत फिर भी दुनिया में चीन के बाद दूसरी सबसे अधिक विकास दर दर्ज करने वाला देश होगा। कोई बैंक और वित्तीय संस्थान यहां तबाह नहीं हुआ। न ही ऐसी आशंका है। आईसीआईसीआई बैंक को लेकर कुछ अफवाहें ज़रूर आईं, लेकिन उसका एक्सपोज़र 'नाममात्र' को ही निकलकर आया। कुल मिलाकर साफ़ 'बच' गए हम...

विदेशी निवेश भी काफी निकल गया हमारे बाज़ारों से... विदेशी संस्थागत निवेशकों ने इस साल अब तक भारतीय बाज़ारों से 1200 करोड़ डॉलर निकाल लिए, लेकिन इसी दौरान करीब चार हज़ार करोड़ डॉलर की खरीदारी भी हुई, जो भारतीय निवेशकों ने की। यानि, सही मायने में 'करेक्शन'... विदेशी निवेशकों के आगे भी हाथ खींचते रहने से यदि बाज़ार गिरेगा तो भारतीय निवेशकों की खरीदारी अभी बाकी है। एक बड़ा नया निवेशक वर्ग कौड़ियों के भाव मिल रहे शेयरों को अपने पोर्टफोलियो में शामिल करने के लिए तैयार नज़र आ रहा है। हालांकि, बाज़ार में कोई भी निम्नतम स्तर की भविष्यवाणी नहीं कर सकता, लेकिन सेन्सेक्स 7700 के लेवल तक नीचे जा चुका है और तब से लगभग लगातार सुधर ही रहा है... अगले साल की पहली तिमाही में नई सरकार के बनने के बाद बाज़ार मजबूती की ओर ही जाना चाहिए... कोई वजह नज़र नहीं आती हमारी अर्थव्यवस्था के डूबने की...

आर्थिक विश्लेषकों द्वारा दिए जा रहे आंकड़े भी इसकी पुष्टि करते नज़र आ रहे हैं। हां, कुछ औद्योगिक सेक्टरों पर मुश्किलों के बादल मंडरा रहे हैं। आउटसोर्सिंग और आईटी जैसे सेक्टर सीधे-सीधे अमेरिकी और दूसरे पश्चिमी देशों से जुड़े हैं। इसका असर हम पर कहीं न कहीं पड़ेगा, लेकिन पूरी भारतीय अर्थव्यवस्था केवल इन्हीं क्षेत्रों पर टिकी हुई नहीं है। काफी हद तक अमेरिकी अर्थव्यवस्था पर निर्भर होने का आरोप यहां धुलता-सा नज़र आता है। तेज झोंके की वजह से भारत हिला ज़रूर, लेकिन भड़भड़ाकर गिरा नहीं। आप कह सकते हैं कि 'गरीब' का क्या नुकसान और क्या फायदा... लेकिन सच यह है कि हम अब उतने 'गरीब' भी नहीं हैं...

इस वक्त कम से कम 'केवल एक विकासशील देश' ही नहीं हैं हम... इतने महत्वपूर्ण तो हम हैं ही कि अमेरिका हमारे साथ न्यूक्लियर डील करके 'खुश' हो सके। इतना ही नहीं, पिछले 60 साल के दौरान भारत को पाकिस्तान के संदर्भ में ही देखने के 'आदी' सुपर पॉवर को हमें एक अलग नज़रिये से देखने की ज़रूरत महसूस हुई... चाहे वह रिपब्लिकन बुश हों या डेमोक्रेट ओबामा, अब अमेरिका केवल कश्मीर मुद्दे पर ही भारत संबंधी बयान जारी नहीं करता, बल्कि दूसरी वजहों से भी उसे भारत की याद आती है। आने वाले दिनों में टूटती अर्थव्यवस्था को संभालने में जुटे अमेरिका को कई मोर्चों पर तेजी से उभर रहे भारत की मदद की दरकार रहेगी।

विविधताओं वाले बड़े देशों में भारत के सामने चीन की चुनौती है। चीन ने आर्थिक मोर्चे पर कोई कम उन्नति नहीं की है। भारत फिलहाल चीन से पीछे है... लेकिन इतना पीछे भी नहीं कि चुनौती का सामना न किया जा सके। भारत और चीन की आर्थिक उन्नति में एक बड़ा मौलिक अंतर यह है कि भारत ने जहां सेवा क्षेत्र में अपनी जगह बनाई है, वहीं चीन ने अपने उत्पादन क्षेत्र को बढ़ाया है। हमारे सेवा क्षेत्र उद्योग की पहुंच जहां केवल बड़े शहरों तक सीमित है, चीन में छोटी-छोटी उत्पादन इकाइयों ने अपनी पहुंच दूर-दराज के इलाकों में बनाई है और यही बात चीन को हमसे आगे करती है। यदि अगले साल चुनी जाने वाली सरकार से इस मोर्चे पर काम करने की उम्मीद की जाए तो हमारी औद्योगिकीकरण दर में बढ़ोतरी हो सकती है। जाहिर है, इससे रोजगार के नए अवसर बढ़ेंगे और हमारी अर्थव्यवस्था चट्टान की तरह मजबूत बन सकेगी...

Saturday, November 01, 2008

कंपनियों में तब्दील होते राजनीतिक दल

धर्मेंद्र कुमार
राजनीतिक दलों की शक्लें बदलने लगी हैं। गांधी-नेहरू के जमाने में समाज सेवा को प्राथमिकता सूची में रखने का प्रयास करने वाले राजनीतिक दलों की प्राथमिकता अब कम से कम समाजसेवा तो नहीं रही है, बल्कि यह रहती है कि कैसे उसे एक कंपनी का रूप देकर एक लाभ कमाने वाला प्रतिष्ठान बना डालें। सबसे दु्खदायी तथ्य यह है कि कोई भी दल इससे अछूता नहीं... चाहे वह सत्तारूढ़ कांग्रेस हो, उसकी सहयोगी समाजवादी पार्टी या अन्य छोटे क्षेत्रीय दल हों और या विपक्ष में बैठी भाजपा, वामदल या बसपा... चलिए, एक तरफ से नजर डालते चलते हैं।

सत्ता पक्ष की बात करें तो कांग्रेस ने कोई कसर नहीं छोड़ रखी है पार्टी को एक व्यावसायिक कंपनी बना देने में। अब चाहे वह गांधी टोपी को कैप में बदलकर 'अच्छा लुक' देने का प्रयास हो या पूरे शहर में 'बैलेंस शीट' जैसे बड़े-बड़े होर्डिंग लगाकर लोगों को अपनी उपलब्धियां गिनाना हो। कांग्रेस के आयकर विभाग को दिए पिछले तीन साल के हिसाब-किताब को देखा जाए तो पार्टी की परिसंपत्तियों में 28.5 फीसदी सालाना की वृद्धि हुई है। देश की आर्थिक विकास दर से इसकी तुलना करें तो पार्टी के कोष में तीन गुना ज्यादा की वृद्धि हुई। साल 2003 में कांग्रेस ने 69.56 करोड़ रुपये, 2004 में 153 करोड़ रुपये और साल 2005 में 227 करोड़ रुपयों की 'उगाही' की।

यही नहीं, अपनी व्यावसायिक गतिविधियों को और हवा देने के लिए कांग्रेस जल्दी ही अपना टेलीविजन चैनल भी लॉन्च करने जा रही है। केरल, आंध्र प्रदेश और कुछ अन्य दक्षिणी राज्यों में वहां की क्षेत्रीय भाषाओं में इन टीवी चैनलों ने प्रायोगिक रूप से काम करना शुरू भी कर दिया है। हिन्दी भाषा में पूरी तरह व्यावसायिक पार्टी चैनल भी जल्द ही हम लोगों को देखने को मिलेगा। इस संबंध में जारी आधिकारिक वक्तव्य को देखें तो पार्टी का कहना है कि चैनल पर समाचार और सम-सामयिक घटनाक्रमों पर आधारित कार्यक्रम प्रसारित किए जाएंगे। और, यह कुछ-कुछ न्यूज़ चैनल जैसा ही दिखेगा, जिसे 'कार्यकर्ता' चलाएंगे।

कांग्रेस की इन गतिविधियों को भाजपा कोसती जरूर है, लेकिन पार्टी अपनी 'प्रतिद्वंद्वी' से ज्यादा पीछे नहीं है। पार्टी की सकल घरेलू उत्पाद विकास दर पूरे भारत की आठ फीसदी की विकास दर से कुछ ही कम है। पार्टी ने साल 2003 में 72.3 करोड़ रुपये, 2004 में 160.13 करोड़ रुपये और साल 2005 में 104.12 करोड़ रुपयों की उगाही की। उगाही में जो कमी दिख रही है, वह इस वजह से है कि भाजपा फिलहाल सत्ता में नहीं है। अगर पार्टी सत्ता में लौटी तो पार्टी की अर्थव्यवस्था में निश्चित रूप से 'उछाल' आएगा।

कांग्रेस के बड़े-बड़े होर्डिंगों को देखकर पिछली बार के राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन का चुनाव पूर्व अभियान याद आ जाता है। तब राजग ने देशभर में सभी सड़कों और हाईवे को 'इंडिया शाइनिंग' के बोर्डों से भर दिया था। हाल ही में भारतीय जनता पार्टी के सूचना प्रौद्योगिकी प्रकोष्ठ ने कॉरपोरेट

उत्कृष्टता के लिए इस साल का 'सीआईओ-100' अवार्ड जीता है। पार्टी के सूचना प्रौद्योगिकी प्रकोष्ठ को अंतरराष्ट्रीय पत्रिका 'सीआईओ' ने औद्योगिक उत्कृष्टता के लिए देश के शीर्ष 100 संगठनों में चुना है। 'सीआईओ' आईटी नीति-निर्माताओं की दुनिया की अग्रणी पत्रिका है, जिसने भाजपा के साथ-साथ इस सम्मान के लिए देश की अन्य कंपनियों महिन्द्रा एंड महिन्द्रा, एचसीएल, एलएंडटी, केपीएमजी कोग्नीजेंट और विप्रो को भी इसी सूची में चुना है। जाहिर है, ये कंपनियां भाजपा से इस मामले में 'पीछे' हैं। इसी से आप वस्तुस्थिति समझ सकते हैं। हालांकि पार्टी की दलील है कि यह अवार्ड पार्टी द्वारा अपने प्रशासन में सूचना प्रौद्योगिकी के समुचित प्रयोग को लेकर दिया गया है। 'सीआईओ' दुनिया के करीब 25 देशों में जाती है और यह पुरस्कार अमेरिका में 20 साल पहले शुरू किया गया था।

वामदल भी कमाई करने में बिल्कुल पीछे नहीं हैं। वामदलों ने वर्ष 2001 से 2006 के दौरान करीब 152 करोड़ रुपये उगाहे। इस दौरान समाजवादी पार्टी की आर्थिक विकास दर में 40.9 फीसदी की वृद्धि हुई। बहुजन समाज पार्टी की आर्थिक विकास दर में भी 32.2 फीसदी की वृद्धि देखी गई। बहुजन समाज पार्टी ने साल 2003 में 29.51 करोड़ रुपये, साल 2004 में 10.91 करोड़ रुपये और साल 2005 में 4.20 करोड़ रुपये उगाहे।

तो, अब अगले चुनाव में हम और आपको अपनी पसंदीदा 'कंपनी' को वोट देने के लिए तैयार हो जाना चाहिए...
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